कहते हैं यात्रा शिक्षा का बड़ा माध्यम होती है। यात्रा के दौरान मिलने-जुलने के क्रम में आप काफी कुछ देखते हैं,सीखते हैं और समझते हैं। मैं इसे सौ फीसदी सच मानता हूँ । एक मुसाफिर की भूमिका में पिछले कई साल से जीते हुए मैंने काफी कुछ देखा,सीखा और समझने की कोशिश की। आज भी कर रहा हूँ। यात्रा के दौरान मिलने वाले हर साथी में कुछ ना कुछ ख़ास है। सबकी अपनी विशेषता है। जो मुझमे है वो रामलाल में नही है। जो कलीम चाचा के पास है वो अलबर्ट चाहकर भी नही पा सकता। मतलब कोई किसी से कम नही। हाँ रहन-सहन,खान-पान में फर्क हो सकता है,होना भी चाहिए। जरूरी नही गुप्ता जी की तरह मैं नाश्ते में चीज-बटर से चुपड़ी ब्रेड ही खा सकूँ। ये भी तो नही हो सकता है कि यादव जी या देवांगन बाबू की तरह परात भर भात और चटनी खा कर पूरे सफर में किसी बर्थ के कोने में पड़ा नाक बजाकर लोगों को परेशान करूँ।

हम मुसाफिर है हर रोज किसी ना किसी बात पर उलजुलूल बाते या फिर किसी विषय पर चर्चा । कभी सियासत के गलियारे में देश के भविष्य की तस्वीर तलाशते है तो कभी पारिवारिक उलझनों के बीच हासिल चंद खुशियों का जिक्र। जाति धर्म को लेकर भी चर्चा होती है । हर विषय पर टीका-टिप्पणी करने वाले इर्द-गिर्द होते है। किसी भी विषय पर जितने तर्क जानकार सज्जन के होते है उससे कही ज्यादा तल्ख़ तेवर पोंगा-पंडित के होते है । तर्क-कुतर्क के बीच मंज़िल की ओर बढती ट्रेन की रफ़्तार कम ज्यादा होती है मगर अपनी-अपनी बात पर अडिग कथित जानकार विषय से नही भटकते। निर्धारित स्टेशनों पर मुसाफिरों का उतरना-चढ़ना लगा रहता है। सबकी जगह तो नही मगर साथी करीब-करीब फिक्स है। किसको किस ग्रुप या किसको किसके साथ बैठना है तय है। आप चाहें तो कह सकते है 'ये फेविकोल का मजबूत जोड़ है टूटेगा नही ।' मगर कई बार दिमाग टूटने की कगार पर होता है। कहने का आशय सिर्फ इतना है की कुछ साथी शुरू हुए तो सफर के बाद साथ छूटने पर ही कानों को राहत का मौक़ा देते है ।
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