Friday, September 19, 2014

मामु फिर मामू बन गए..!

                                    कहते हैं यात्रा शिक्षा का बड़ा माध्यम होती है। यात्रा के दौरान मिलने-जुलने के क्रम में आप काफी कुछ देखते हैं,सीखते हैं और समझते हैं। मैं इसे सौ फीसदी सच मानता हूँ । एक मुसाफिर की भूमिका में पिछले कई साल से जीते हुए मैंने काफी कुछ देखा,सीखा और समझने की कोशिश की। आज भी कर रहा हूँ। यात्रा के दौरान मिलने वाले हर साथी में कुछ ना कुछ ख़ास है। सबकी अपनी विशेषता है। जो मुझमे है वो रामलाल में नही है। जो कलीम चाचा के पास है वो अलबर्ट चाहकर भी नही पा सकता। मतलब कोई किसी से कम नही। हाँ रहन-सहन,खान-पान में फर्क हो सकता है,होना भी चाहिए। जरूरी नही गुप्ता जी की तरह मैं नाश्ते में चीज-बटर से चुपड़ी ब्रेड ही खा सकूँ।  ये भी तो नही हो सकता है कि यादव जी या देवांगन बाबू की तरह परात भर भात और चटनी खा कर पूरे सफर में किसी बर्थ के कोने में पड़ा नाक बजाकर लोगों को परेशान करूँ। 
        आज लिंक के मामू को भोले-भाले एक साथी ने धर्म-कर्म की बातों में ऐसा उलझाया की मामु फिर मामू ही बन गए। बात कर्म-काण्ड से लेकर धर्म को मानने और धर्म ग्रंथों में उल्लेखित विषयों तक पहुंची। मामू का आज एकादशी व्रत था सो उन्होंने एक साथी के लड्डू ऑफर को ठुकरा दिया। इंकार की चोट सीधे दिल पर लगी। प्रसाद को ठुकरा दिए जाने का मलाल   लडडू वाले भोलाराम को था सो उन्होंने बात ही बात में मामू को सुना डाला। आपसी बातचीत थी।  देखने वाला अगर अनजान हो तो उसे झगड़ा होने का भ्रम हो सकता है,मगर मामू और भोलू दोनों अपने-अपने तर्क पर अडिग। काफी देर बाद सामने बैठी एक भद्र महिला को हस्तक्षेप करना पड़ा। आप समझ सकते है जब खामोश महिला ने अचानक कंठ खोला होगा तो कितना और कहाँ तक बोल गईं होंगी। मामू के एक तर्क पर मैडम जी की चार बाते अगल-बगल वालों  की हूँकारू के साथ। चर्चा भगवान और उसके आस्थावानों पर थी इस कारण सबके पास अपने-अपने तर्क थे। कुछ देर के लिए मामू तर्कों से घिरे नज़र आये। बोलती,लपलपाती जुबान को कई बार शब्द तलाशने पड़ रहे थे और इधर मोहतरमा धर्म पर छिड़ी बहस को जीतकर घर लौटना चाहती थी। हुआ भी वही। चर्चा की शुरुआत करने वाले भोले भाई लपक कर दूसरी ओर  बैठकर खामोशी से मामू की खिंचाई का तमाशा देखते रहे। इस बीच ट्रेन बिलासपुर पहुँच गई। अब मामू को मलाल की उस भद्र महिला को फलां-फलां नही बोल पाए। कोई बात नही मामू, भोलाराम की मर्जी रही तो आप रोज धर्म,कर्म को लेकर केवल तर्क ही देते रहेंगे।                
                                        हम मुसाफिर है हर रोज किसी ना किसी बात पर उलजुलूल बाते या फिर किसी विषय पर चर्चा । कभी सियासत के गलियारे में देश के भविष्य की तस्वीर तलाशते है तो कभी पारिवारिक उलझनों के बीच हासिल चंद खुशियों का जिक्र। जाति धर्म को लेकर भी चर्चा होती है । हर विषय पर टीका-टिप्पणी करने वाले इर्द-गिर्द होते है। किसी भी विषय पर जितने तर्क जानकार सज्जन के होते है उससे कही ज्यादा तल्ख़ तेवर पोंगा-पंडित के होते है । तर्क-कुतर्क के बीच मंज़िल की ओर बढती ट्रेन की रफ़्तार कम ज्यादा होती है मगर अपनी-अपनी बात पर अडिग कथित जानकार विषय से नही भटकते। निर्धारित स्टेशनों पर मुसाफिरों का उतरना-चढ़ना लगा रहता है। सबकी जगह तो नही मगर साथी करीब-करीब फिक्स है। किसको किस ग्रुप या किसको किसके साथ बैठना है तय है। आप चाहें तो कह सकते है 'ये फेविकोल का मजबूत जोड़ है टूटेगा नही ।' मगर कई बार दिमाग टूटने की कगार पर होता है। कहने का आशय सिर्फ इतना है की कुछ साथी शुरू हुए तो सफर के बाद साथ छूटने पर ही कानों को राहत का मौक़ा देते है । 

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