Wednesday, June 04, 2014

........ गुरूजी तो एक ही थे।

        ……ड़ा ही अजीब इत्तेफाक था। वो गुरूजी थे जिनसे मुलाक़ात करनी थी और वो भी गुरूजी ही थे जिन्हे खोजना था। एक गुरूजी का पता मालूम था,दूसरे का पता मालूम करना था। इन दोनों गुरूजी से मेरा ना कोई काम था ना मिलने की कोई ख़्वाहिश। मैं तो बस अपने फक्कड़पन कहूँ या घुमन्तु प्रवित्ति के चलते उन दोनों  गुरुओं के पास जा रहा था। बिलासपुर से करीब १९८ किलोमीटर दूर थे वो गुरुजन.... पोड़ीबछेरा [कोरिया] में। काम मेरे मित्र महेश को था,मैं अपना काम छोड़कर महेश के साथ  जा रहा था। महेश एक ऑटोमोबाइल कंपनी में सेल्स मेनेजर है। लोग जूता-चप्पल,टीवी-फ्रीज़,कपडा-मोबाइल ,आम-अमरुद,तरबूज-खरबूज बेचते है महेश छोटी-बड़ी कार बेचता है। चूँकि सेल्समेन है इस कारण बोलने और बेवकूफ बनाने की कला में पारंगत है। दिल का साफ़ महेश बिना बटन वाला टेप रिकार्ड है। एक बार शुरू हुआ तो बंद होने का नाम नही लेता।  नई बातों के बीच पुरानी बातों को दोहराना मेरे मित्र की खूबी है। मेरी मुलाकात बहुत पुरानी नही है ,पर लगता ही नही की महेश से इसी मार्च महीने के आखिर में मिला हूँ। कोरबा आने-जाने के दौरान महेश ट्रेन में मिला। 
            सोमवार को महेश बैकुंठपुर,चिरमिरी के लिए निकला तो मैं साथ ही था। उसका टारगेट दो गुरूजी और मैं बिना किसी टारगेट के केवल घूमने,फोटो पाने की लालसा में जा रहा था। बिलासपुर से कटघोरा,मड़ई होते हुए चिरमिरी की ओर बढ़ते जा रहे थे। रास्ते में कुछ फोटो लायक दिखाई पड़ जाता तो महेश को बोलकर गाडी रुकवा लेता। इस तरह रुकते-रुकाते हम बैकुंठपुर की ओर बढ़ रहे थे। रास्ता हेमामालिनी के गाल से भी ज्यादा चिकना। हाँ कहीं-कहीं एकाध गढ्ढे मिल जाते तो हम सोच लेते कि अब तो उम्र के साथ-साथ हेमा के गालों पर भी सलवटे पड़ गई है। बैकुण्ठपुर से पहले ही ग्राम पोड़ीबछेरा था जहां दो अलग-अलग गुरुजनो से मिलकर महेश काम के सम्बन्ध में बातचीत करने आतुर था। एक गुरूजी के परिचित का नंबर महेश के पास था जिससे मोबाइल के जरिये लगातार संपर्क हो रहा था की कब कहाँ पहुंचे और किस रास्ते पोड़ीबछेरा पहुँचना है। बातचीत करते,फोटो सोटो खींचते एक जगह हम रास्ता भी भटके पर पूछते-पुछाते हम पोड़ीबछेरा पहुँच ही गए। जिस सज्जन से महेश मोबाइल के जरिये संपर्क में था वो मिला। बड़ी ही उत्सुकता से मेरा मित्र कार से उतरा और उस सज्जन से हाथ बढ़ाकर अभिवादन की औपचारिकता पूरी की । मैं कार में ही बैठा सब देख रहा था क्यूंकि मेरी स्थिति जान न पहचान मैं तेरा मेहमान वाली कहावत से कम नही थी। कुछ देर बातचीत करने के बाद महेश वापस आ गया। कार से उतरते वक्त सेल्स मेनेजर साहब के चहरे  की जो रंगत थी वो उस सज्जन से मुलाक़ात के बाद लौटकर कहीं गायब थी। 
                                                    आते ही कार को स्टार्ट कर महेश के मुँह से जो पहला शब्द निकला वो था ''सत्या भईया'' हम बेवकूफ बन गए,वैसे और भी बहुत कुछ कहाँ उसने। मैं समझ नही पाया मैंने पूछा अब क्या हुआ ? क्या हमको अब दूसरे गुरूजी के पास जाना है ? जवाब था नही...... वो दोनों गुरूजी एक ही हैं। मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ.... पूछने पर मेरे मित्र का जवाब था भाई जिस सज्जन से अभी मुलाक़ात हुई उसने बिना गुरूजी का नाम बताये ये कहा था की एक गुरूजी है जो गाडी खरीदना चाहते है। मैंने कहा फिर इसमे गफलत कहाँ है.... महेश जी बोले भइए इसी गाँव के नारायण गुरूजी कुछ दिन पहले कोरबा आकर एक कार बुक करा गए थे लेकिन मैं उनका मोबाइल नंबर और घर का पता पूछना भूल गया था। जब गाँव वाले उस सज्जन ने कहीं से मेरा नंबर पाकर किसी गुरूजी के कार खरीदने की इच्छा का जिक्र किया तो मुझे लगा एक ही गाँव में दो गुरूजी कार ख़रीदने वाले है। 
                           बस क्या था मैंने सोचा एक गुरूजी को कार का मॉडल दिखाकर सौदा तय कर लूंगा और जो बे पता गुरूजी है उनसे मुलाक़ात कर मोबाइल नंबर लेकर बुक कार को कब लेंगे ये पूछ लूंगा ? अफ़सोस..... दूसरी कार वाले गुरूजी ने तो चंद दिनों पहले ही कार बुक करवा ली है । हाँ मेरे मित्र को इस बात की संतुष्टी जरूर थी की उसे बे-पता गुरूजी का पता मिल गया साथ में मोबाइल नंबर। रास्ते भर उस सज्जन को भला-बुरा कहते हम बैकुण्ठपुर की ओर बढ़ गए। वहां से फिर पेण्ड्रा,केंवची के रास्ते शाम साढ़े सात बजे वापस बिलासपुर पहुँच गए। मौसम की नरमी गर्मी के बीच नान स्टॉप बोलते महेश को मैं रास्ते भर सिर्फ इतना ही कहता रहा........ गुरूजी तो एक ही थे।