Monday, November 23, 2015

विस्थापन का दंश

                                                     

उसने कहा था मंदिर बनेगा... खेत बनेंगे, बच्चों की परवरिश का बेहतर इंतज़ाम होगापर 'मरइया मर गे साहब आज तक मजदूरी के पईसा नई मिले हे' … कोई सरकार साथ नहीं दी, कैसी सरकार है जिसके कानों में हमारे दर्द की आहट तक नहीं होती ? कैसी सरकार है साहेब.. जिसने बदहाल जिंदगी को और बदरंग बना दिया ? सिर्फ पछतावा है 'आखिर क्यों छोड़ा उस आशियाने को... वो बस्ती आज भी आँखों से ओझल नहीं हुई जो उजड़ी तो फिर बस सकी।

                          एक बस्ती जिसकी आबो-हवा में दर्द, घुटन और गुस्से की गंध महसूस होती है। ये बस्ती उन परिवारों की है जिन्हें राष्ट्रपति का दत्तक पुत्र माना जाता है। यानि आदिवासियों की संरक्षित 'बैगा' जाति। बैगा परिवारों के दर्द की दास्तान शुरू हुई साल २००९ से। अविभाजित बिलासपुर जिले का हिस्सा अचानकमार अभ्यारण्य को 'टाइगर रिजर्व' घोषित किये जाने के बाद केंद्रीय पुनर्वास नीति के तहत बैगा परिवारों के व्यवस्थापन का काम समयबद्ध योजना बना कर किया जाना था। पर वन विभाग ने ऐसा कुछ भी नहीं किया और राष्ट्रीय पशु को संरक्षित करने का दिशा-निर्देश दिखाते हुए बैगा परिवारों का व्यवस्थापन 1 सितंबर २००९ से जून 2010 तक महज 10 माह के बेहद कम अंतराल में निपटा दिया। व्यवस्थापन के कार्य में समयबद्ध योजना के अनुसार वन महकमें को पहले चयनित जगह पर वैकल्पिक व्यवस्था बनाकर बैगा परिवारों को मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराते हुए शिफ्ट करना था। उसके बाद बैगा परिवार को रोजगारमूलक काम उपलब्ध कराते हुए व्यवस्थापन के तहत होने वाले मकान, स्कूल, अस्पताल भवन के निर्माण के साथ कृषि भूमि के समतलीकरण मेढ़बंधी तैयार कराने जैसे काम में उनसे ही मजदूरी कराना था ताकि बैगाओं को काम पारिश्रमिक भी मिलता रहे और वे अपना आशियाना अपने ही हाथों से तैयार कर सकें।

            
अफ़सोस ऐसा कुछ नहीं हुआ वन महकमें के कथित भ्रस्ट अफसरों ने स्वयं कुछ लोगों को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से केवल 10 माह में अचानकमार अभ्यारण्य के वन ग्राम जल्दा के 74 बैगा परिवार को कठमुड़ा में लाकर न्यू जल्दा कालोनीनुमा आवासगृह बनाकर बसा दिया, जिन्हें आज तक उसका पछतावा है उसी अवधि में बैगाओं के लिए स्कूल, अस्पताल, खेत, तालाब सब कुछ तैयार करने की कोरी औपचारिकता पूरी की गई। न्यू जल्दा में आज क्या है ? देखकर वन महकमें के तमाम दावों की हकीकत सामने नज़र आएगी। प्रति परिवार 10 लाख रुपए के पैकेज में मात्र 50 हजार रुपए मिले। एक बैगा परिवार को टाइगर प्रोजेक्ट के तहत नेशनल टाइगर कंजरवेशन अथार्टी (एनटीसीए) के अनुसार कोर एरिया से बाहर करने की एवज में केंद्रीय पुनर्वास नीति के तहत 10 लाख रुपए की पात्रता है। इसमें बैगा परिवार चाहे तो उस राशि को नगद लेकर कहीं अन्यंत्र निवास कर सकते हैं या फिर विभागीय प्रक्रिया के अनुरुप विकसित जमीन, घर और कुछ नकद राशि ले सकता हैं। लेकिन विस्थापन के तहत न्यू जल्दा में बसाए गए 74 बैगा परिवारों में से हर परिवार के हाथ में सिर्फ 50 हजार रुपए ही आए हैं। बाकी के 9 लाख 50 हजार रुपए को वन विभाग ने बैगाओं के लिए खेत, मकान, अस्पताल, स्कूल, बिजली, पानी, सड़क निर्माण कार्य में खर्च होना बता दिया गया। वन महकमें के अलावा कई सामाजिक,सियासी और समाज को आईना दिखाने का ठेका [पत्रकारों] लेने वाले उस दौरान लाल हो गए।

                  
               उस दौर से शुरू हुई बैगा परिवारों के शोषण की रोज नई हकीकत सामने आती है जो रहबर हैं वो ही लूट रहें हैं, ये जानते हैं बैगा परिवार पर क्या करें कहीं कोई सुनने वाला नज़र आता नहीं इसलिए अकेले में रो लेतें हैं। दर्द की आगोश में चलती साँसे ज़िंदा होने का अहसास तो कराती हैं मगर सामने केवल अँधेरा नज़र अाता है। कांक्रीट की सड़क पर नंगे बदन घूमते बच्चों को देख बैगा परिवार जंगल की माटी को याद कर रो लेते हैं क्यूंकि शोषण का शिकंजा वहां इतना व्यापक नहीं था। अब तो सरकार, सरकारी मुलाजिम और सरपंच से लेकर सभी लूटने-खसोटने में लगें हैं। सबको अपना हिस्सा चाहिए, उस हिस्सेदारी में बैगाओं के तन से कपडे कम होते चले गए। बात पिछले ही दिनों की है आदिवासियों की कुछ तस्वीरों की चाह में मैं भटकता हुआ 'नया जल्दा' पहुंचा। कैमरा देखकर कई परिवारों ने आक्रोश दिखाया, तो कुछ ने दर्द की दास्ताँ को सिलसिलेवार बताना शुरू किया। आक्रोश इस बात का कि उनके हक़ को डकार जाने वाला अक्सर उनके पास कैमरा लेकर ही जाता था। हर समस्या का समाधान करवा देने का आश्वासन देने वाला खुद को 'पत्रकार' बताता। बैगा परिवारों का भरोसा जीतकर प्रीतम दिवाकर नाम के पत्रकार साहेब ग्राम पंचायत टेंगनपाड़ा के सरपंच बन गए। सरपंच जी बैगा परिवारों को भरोसा दिलाया था जिस 'हनुमान जी' को वो बस्ती उजड़ने के दौरान साथ लाएं हैं उनका मंदिर बनवा देंगे लेकिन साल बाद भी पवनसुत हनुमान खुले आसमान के नीचे बस्ती के पास तालाब के किनारे हर मौसम का मज़ा ले रहें हैं। सरपंच जी ने भरोसा तोड़कर बैगा परिवारों का केवल शोषण किया। आधार कार्ड की कीमत प्रति व्यक्ति १०० रूपये/ मनरेगा जॉब कार्ड हो या मतदाता परिचय पत्र हर काम का निर्धारित मूल्य। आज हालत ऐसे हैं की सरपंच प्रीतम दिवाकर के नाम से बैगा परिवारों की तल्खी देखकर यकीं नहीं होता ये उसी 'जल्दा' के बैगा परिवार हैं जो शहरी प्राणियों को देख सहम जाते थे। यहां सरपंच प्रीतम दिवाकर ने मनरेगा के जरिये बैगा परिवारों से काम तो करवाया लेकिन एक साल बाद भी मजदूरी का भुगतान नहीं किया। बैगाओं की मेहनत के करीब ५० हजार रूपये सरपंच ने डकार लिए। इतना ही नहीं वन विभाग ने एकड़ खेत की बजाय एकड़ से ज्यादा जमीन किसी भी परिवार को नहीं दी। प्रति परिवार एकड़ ज़मीन कहाँ है ?
        
इन तमाम तकलीफों के बीच पानी,बिजली जैसी मूलभूत जरूरत के पूरा होने पर कुछ ना भी लिखूं तो आप विस्थापन के दंश का अहसास बखूबी कर लेगें। ऐसे और गाँव हैं जिनका व्यवस्थापन किया गया था। हालात वहां इससे बेहतर क्या होगे ? अचानकमार टाइगर रिजर्व से अभी २२ और गावों का विस्थापन किया जाना बाकी है। विस्थापितों की पीड़ा से अवगत बैगा परिवार क्या सरकार की व्यवस्था, सरकारी अमले या फिर नेता की शक्ल में शोषकों का पोषक आहार बनेंगे
                पक्के मकानों में आज भी वो सकूँ नहीं मिलता जो कुछ बरस पहले तक कच्ची दीवारों की आड़ में मिलता था। बस्ती में किसी शहरी बाबू के आने की खबर ७० साल के इतवारी को लगी। लकड़ी के सहारे चलकर वो सामने आया। 'क्या योजना लेकर आये हो सरकार' … पहला सवाल। दूसरा सवाल...आखिर पिछले साल की मजदूरी का भुगतान कब होगा ? साहेब इस बार तो कोई धोखा नहीं होगा ना ? ये इतवारी का तीसरा और अहम सवाल था। 
                                
                                                                           जी हाँ... बैगा परिवार की बस्ती में पहुंचे हर शख्स ने उनकी भावनावों से खेला, उनके विश्वास को तोड़ा। कर्ज लेकर अपनी बीमार जोड़ी सुकवा [पत्नी] का पहले इलाज करवाया फिर मौत के बाद सामान जुटाकर क्रियाकर्म। अपनी जोड़ी सुकवा से बिछड़ जाने का गम इतवारी की आखों में नज़र आती नमी को देखकर लगाया जा सकता था। गम, दर्द के बीच गुस्से से तमतमाये इतवारी की तल्ख़ आवाज जब कानों तक पहुंची तो सिर्फ ...हक़ के रुपयों की जरूरत का शोर सुनाई पड़ा।

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