Monday, September 22, 2014

आदमी का मेजरमेंट है.. जूता !

गत दिनों मुझे एक जोड़ी जूते खरीदने थे। सो जूतों के बारे में सोचता रहा। दो दिन बाद मैं बहुत चौंका कि चिंतन में लगातार जूता ही चल रहा है यानि कि जूता दिमाग में भी चलने लगा। अब तक तो यही सुना था कि जूता लोगों के बीच में चलता है। 
        अब दिमाग में जूता घुसा तो ऐसा घुसा कि जूते के विषय में नये-नये तथ्य सामने आने लगे। यों तथ्यों को नये कहना भी गलत होगा। हैं तो वो बहुत पुराने बहुत आम, पर अब तक दिमाग में नहीं आए। दूकानदार ने तो दार्शनिक मुद्रा में सत्य उद्घाटित किया कि 'जूतों से आदमी की पहचान होती है, आदमी की सबसे पहली नज़र जूतों पर ही पड़ती है। जूतों से आदमी का स्तर नापा जा सकता है। यानि कि जूते स्टैंडर्ड की पहचान होते हैं। अब यह तथ्य बड़ी-बड़ी कंपनियाँ भी जान गयी हैं इसलिए अब बहुत बड़ी-बड़ी अंतर्राष्ट्रीय कंपनियाँ जूते के मार्केट में उतर आयी हैं। अब जूता कैसा है इससे मतलब नहीं है जूता किस कंपनी का है यह महत्त्वपूर्ण है। आपके जूते किस ब्रांड के हैं यह पता चलते ही यह पता पड़ जाएगा कि आप उद्योगपति हैं, बड़े व्यापारी हैं, बड़े अपफसर हैं मध्मम दर्जे के आदमी हैं, क्लर्क हैं या चपरासी हैं। जूतों को देखकर आप आसानी से पता कर सकते हैं कि अमुक आदमी का आर्थिक स्तर लगभग ऐसा है यानि कि जूता आदमी का मेजरमेंट है।` 
          यदि आपकी नज़र में कोई ऐसा जूता आए जिसके तलवे घिसे पिटे हैं फटीचर हैं और किसी जवान लड़के के पैर में हैं तो आप समझ जाएँगे कि बेचारा बेरोजगार है गरीबी का मारा है और ऐसे जूते किसी प्रौढ़ व्यक्ति के पैर में हों तो आप तत्काल समझ जाएँगे कि बेचारा परिस्थिति का मारा है आदि-आदि यानि कि जूते आपकी सच्ची कहानी आसानी से बयाँ कर देते हैं। इसलिए कुछ चालाक लोग अपने हालात छुपाने के लिए यानि कि अपनी इज्जत बचाने के लिए बढ़िया कंपनी का महँगा जूता पहनते हैं चाहे इसके लिए उनको कितने ही जूते चटखाने पड़ें। कहने का मतलब आदमी की इज्जत का रखवाला जूता ही होता है यदि एकदम यथार्थ में देखें तो यह बात सोलह आना सही है कि यदि जूता पैरों में पड़ा हो तो इज्जत बढ़ाता है। और यही अगर सर पर पहुँच जाए तो वर्षों की इज्जत पल भर में मिट्टी में मिल जाए। यदि कोई गलत-शलत तरीके से धनाढ्य होकर अहंकारी हो जाता है तो ऐसे लोगों के लिए ही एक मुहावरा प्रचलित है कि 'पैरों की जूती सर पर पहुँचने लगी है।' 
           जूता ही आदमी की इज्जत घटा सकता है जूता ही आदमी की इज्जत बढ़ा सकता है। आप कितना ही बेशकीमती सूट पहन लें और कीमती टाई लगा लें। रेबैन का चश्मा पहन लें और बिना जूते के नंगे पैर सड़क पर निकल आएँ तो लोग आपको पागल समझने लगेंगे । यदि जूते आपने हाथ में ले लिए और चलाने लगे किसी पर तो पल भर में ही आप संभ्रांत से बदतमीज आदमी कहे जाने लगेंगे। मतलब कि जूता पहनने के साथ खाने के काम भी आता है,जूता पहनने से इज्जत बढ़ती है और जूता खाने से इज्जत घटती है। 
               यदि सही अर्थों में देखा जाए तो जूते का सर्वाधिक महत्त्व है। व्यक्तिगत जीवन में भी, समाज में भी, राजनीति में भी। यानि कि जीवन के हर क्षेत्र में जूतों का सर्वाधिक महत्त्व है। इसका चलन बहुआयामी है। यह निर्बाध रूप से गली-मुहल्ले, सड़कों से लेकर विधान सभा और संसद तक में चलता है। जब कोई मंत्री कोई बड़ा घोटाला अपनी 'जूतों' की नोक पर कर लेता है तब संसद में महीनों 'जूता' चलता है। यानि कि देश की सभी समस्याएँ दर किनार बस जूता ही प्रमुख। इसको इस तरह से भी देखा जा सकता है। जिसका जूता पुजता है वही नेता पुजता है। आप बड़े राष्ट्रीय चरित्रवान नेता हैं तो बने रहिए। यदि आपका जूता नहीं पुज रहा है तो कोई आपको दो टके में भी नहीं पूछेगा। और अगर आपका जूता पुज रहा है तो आप कोई भी हों, डकैत हों, कत्ली हों, अपराधी हों, बलात्कारी हों, महाभ्रष्ट हों, लोग आपको नेताजी, राजा साहब, कुंवर साहब आदि-आदि संबोधानों से संबोधित करेंगे। राजनीतिक पार्टियों में भी यही हाल है जिस नेता का जूता पुज रहा है पूरी पार्टी उसकी ही। राजनीति में केवल वही सफल हो सकता है जो या तो जूता-पुजवाता रहे या जूता पूजता रहे। 
             
   जूता पुजवाने या पूजने की कोई नयी परंपरा नहीं है। यह परंपरा इस देश में सदियों से चली आ रही है। राजा रजवाड़ों के जमाने में, राजा, महाराजाओं, नवाबों, सूबेदारों, हाकिम हुक्कामों और शहर कोतवाल का जूता पुजता था। अंग्रेजों के जमाने में अंग्रेजों का जूता पुजता था और कुछ लोग उनका जूता पूज पूज कर, राय साहब राय बहादुर बनकर अपना जूता पुजवाते थे। तो आज बड़े-बड़े नेताओं, बड़े-बड़े अपराधियों, आला अधिकारियों और शहर कोतवाल का जूता पुजता है। बड़े से बड़ा काम चाँदी के जूते से बन जाता है। मुहावरा भी है चाँदी का जूता, चाँद गरम। वर्षों तक राज सिंहासन पर रख कर जूतों को पूजा गया राम के खड़ाऊँ उस जमाने के जूते ही तो थे। लीजिए राम भले ही बन-बन नंगे पैर डोलते रहे पर अयोध्या में जूते राम के ही पुजते रहे और भरत उन जूतों को पूज-पूज कर ही महान बन गए। आज भी जूतों को पूज-पूज कर मूर्ख और छुटभइये महान बन जाते हैं। 
  आज भी जूता पुजाई की रस्म अदायगी होती रही। दरबार में मुंडियां गिनाने वाले जूते की नोक पर पेशानी रगड़कर आशीर्वाद लेते देखे गए। लगता है नही समझे... कोई बात नही। बस इतना जान लो आज जनता के सेवक का हैप्पी वाला बर्थ डे था।   

Saturday, September 20, 2014

सबके ..'मामा'

                             
                   आज की यात्रा के नायक,खलनायक 'पाण्डेय' जी रहे। वैसे तो पाण्डेय जी कभी कमाल नही करते  पर आज उन्होंने बताया की मिठाई की डिमांड पूरी करने के फेर में लोकल ट्रेन से कूदकर नीचे उतर गए। राहु-केतु के दोष से मुक्त नए बैग में मिठाई का डिब्बा लिए जब लिंक में फिर चढ़े तो मुझे कहना पड़ा 'कमाल करते है पाण्डेय जी।' शिक्षक है पाण्डेय जी। उनके कद्रदान 'मामा जी' कह कर पुकारते है। पाण्डेय जी को मामा जी कहकर सम्बोधित करने वालों की फेहरिस्त जितनी लम्बी-चौड़ी है उसमे उतने ही उम्र-दराज नाम शामिल है। रिटायरमेंट की दहलीज पर खड़ा इंसान हो या फिर जिंदगी से रिटायर होने वाले साहेबान,पाण्डेय जी सबके 'मामा' है। अच्छा रिश्ता है। महोदय ध्रर्म-कर्म के जानकार है। सरलता और सहजता से परिपूर्ण है मगर किसी बात पर शुरू हुए तो छटी का दूध याद दिलाने की ठान लेते है। फिर चाहे संस्कृत में गाना ही क्यों ना सुनाना पड़े। जगत मामा की कोशिश होती है उनसे कोई नाराज़ ना हो चूँकि कड़वा और मुँह पर बोलने की बीमारी से पीड़ित है इस कारण साथियों के नाराज़ होने का भ्रम बना रहता है।
        पाण्डेय जी यानी जगत मामा के संक्षिप्त परिचय के बाद मूल विषय पर लौट आता हूँ। पिछले दिनों महाशय ने पारिवारिक ख़ुशी का जिक्र साथियों के बीच क्या किया मानो पाण्डेय जी के पीछे सब नहा-धोकर,पोंछ-पांछ कर पड़ गए। हकीकत तो मामा ही जाने मगर कभी उपवास तो कभी कुछ कारण से मिठाई नही खिलाई जा रही थी। आज बहाने की गुंजाइश शायद नही बन पाई। कई दिनों की डिमांड आज मामा जी ने पूरी की तो कइयों का मुफ्त ही मुँह मीठा होता चला गया। जिनको मिठाई खिलाये जाने की वजह पता नही थी उन्होंने कोशिश भी नही की जानने की आखिर बेवक्त मामा इतने खुश क्यों है ? 
         मीठा खाने वाले सभी साथियों की ओर से श्रद्धेय ' मामी जी ' को पुनः जन्म दिन की शुभकामनाएं।    

Friday, September 19, 2014

मामु फिर मामू बन गए..!

                                    कहते हैं यात्रा शिक्षा का बड़ा माध्यम होती है। यात्रा के दौरान मिलने-जुलने के क्रम में आप काफी कुछ देखते हैं,सीखते हैं और समझते हैं। मैं इसे सौ फीसदी सच मानता हूँ । एक मुसाफिर की भूमिका में पिछले कई साल से जीते हुए मैंने काफी कुछ देखा,सीखा और समझने की कोशिश की। आज भी कर रहा हूँ। यात्रा के दौरान मिलने वाले हर साथी में कुछ ना कुछ ख़ास है। सबकी अपनी विशेषता है। जो मुझमे है वो रामलाल में नही है। जो कलीम चाचा के पास है वो अलबर्ट चाहकर भी नही पा सकता। मतलब कोई किसी से कम नही। हाँ रहन-सहन,खान-पान में फर्क हो सकता है,होना भी चाहिए। जरूरी नही गुप्ता जी की तरह मैं नाश्ते में चीज-बटर से चुपड़ी ब्रेड ही खा सकूँ।  ये भी तो नही हो सकता है कि यादव जी या देवांगन बाबू की तरह परात भर भात और चटनी खा कर पूरे सफर में किसी बर्थ के कोने में पड़ा नाक बजाकर लोगों को परेशान करूँ। 
        आज लिंक के मामू को भोले-भाले एक साथी ने धर्म-कर्म की बातों में ऐसा उलझाया की मामु फिर मामू ही बन गए। बात कर्म-काण्ड से लेकर धर्म को मानने और धर्म ग्रंथों में उल्लेखित विषयों तक पहुंची। मामू का आज एकादशी व्रत था सो उन्होंने एक साथी के लड्डू ऑफर को ठुकरा दिया। इंकार की चोट सीधे दिल पर लगी। प्रसाद को ठुकरा दिए जाने का मलाल   लडडू वाले भोलाराम को था सो उन्होंने बात ही बात में मामू को सुना डाला। आपसी बातचीत थी।  देखने वाला अगर अनजान हो तो उसे झगड़ा होने का भ्रम हो सकता है,मगर मामू और भोलू दोनों अपने-अपने तर्क पर अडिग। काफी देर बाद सामने बैठी एक भद्र महिला को हस्तक्षेप करना पड़ा। आप समझ सकते है जब खामोश महिला ने अचानक कंठ खोला होगा तो कितना और कहाँ तक बोल गईं होंगी। मामू के एक तर्क पर मैडम जी की चार बाते अगल-बगल वालों  की हूँकारू के साथ। चर्चा भगवान और उसके आस्थावानों पर थी इस कारण सबके पास अपने-अपने तर्क थे। कुछ देर के लिए मामू तर्कों से घिरे नज़र आये। बोलती,लपलपाती जुबान को कई बार शब्द तलाशने पड़ रहे थे और इधर मोहतरमा धर्म पर छिड़ी बहस को जीतकर घर लौटना चाहती थी। हुआ भी वही। चर्चा की शुरुआत करने वाले भोले भाई लपक कर दूसरी ओर  बैठकर खामोशी से मामू की खिंचाई का तमाशा देखते रहे। इस बीच ट्रेन बिलासपुर पहुँच गई। अब मामू को मलाल की उस भद्र महिला को फलां-फलां नही बोल पाए। कोई बात नही मामू, भोलाराम की मर्जी रही तो आप रोज धर्म,कर्म को लेकर केवल तर्क ही देते रहेंगे।                
                                        हम मुसाफिर है हर रोज किसी ना किसी बात पर उलजुलूल बाते या फिर किसी विषय पर चर्चा । कभी सियासत के गलियारे में देश के भविष्य की तस्वीर तलाशते है तो कभी पारिवारिक उलझनों के बीच हासिल चंद खुशियों का जिक्र। जाति धर्म को लेकर भी चर्चा होती है । हर विषय पर टीका-टिप्पणी करने वाले इर्द-गिर्द होते है। किसी भी विषय पर जितने तर्क जानकार सज्जन के होते है उससे कही ज्यादा तल्ख़ तेवर पोंगा-पंडित के होते है । तर्क-कुतर्क के बीच मंज़िल की ओर बढती ट्रेन की रफ़्तार कम ज्यादा होती है मगर अपनी-अपनी बात पर अडिग कथित जानकार विषय से नही भटकते। निर्धारित स्टेशनों पर मुसाफिरों का उतरना-चढ़ना लगा रहता है। सबकी जगह तो नही मगर साथी करीब-करीब फिक्स है। किसको किस ग्रुप या किसको किसके साथ बैठना है तय है। आप चाहें तो कह सकते है 'ये फेविकोल का मजबूत जोड़ है टूटेगा नही ।' मगर कई बार दिमाग टूटने की कगार पर होता है। कहने का आशय सिर्फ इतना है की कुछ साथी शुरू हुए तो सफर के बाद साथ छूटने पर ही कानों को राहत का मौक़ा देते है । 

Thursday, September 18, 2014

मैं ...मतलब बिका हुआ !

                                               
                                           पहले मान्यवर मोदी को भाजपा से ऊपर बैठाया और आज मोदी-चीनी भाई-भाई कहकर मीडिया ने प्रधानमंत्री मोदी को देश से भी ऊपर मान लिया। कई मामलों में बेहद साफ़-सुथरे मन और मिजाज के नरेंद्र भाई मोदी से उम्मीद लगाना बेहतर मनःस्थिति तो है लेकिन लोकतंत्र और देश से ऊपर आज तक न कोई राजा मान्य हुआ है और न ही कोई व्यवस्था स्वीकार्य हुई है। लोकतान्त्रिक आस्थाओं के दुर्ग के बाहर खड़े होकर मीडिया जिस तरह की चारण-वृत्ति कर रही है, यह उसके पतन की इच्छा-शक्ति कह लें तो न गुनाह है और न ही किसी तरह की अतिश्योक्ति।
                   आज हालात और कड़वी हकीकत ये है की कोई भी सीना ठोककर कह देता है 'मीडिया' बिक गया है। कुछ गलत है ? नही.. वो भी जान चुका है कब आसाराम के कपडे उतारे जाएंगे कब बाबा रामदेव के काले धन का मसला मसाला बनेगा। अभी मोदी जी पर चैनल की टीआरपी घट-बढ़ रही है। जो भी कर रहें है नया कर रहें है,इतिहास बन रहा है। नए इतिहास में सिर्फ मोदी जी ही होंगे। भाई आज सत्ता में कौन है ? मुझे [मिडिया] तो जो ज्यादा में मैनेज करेगा उसी का इतिहास बनाऊंगा। कल तुम कुर्सी पर होगे तो इनके इतिहास की जांच का शोर मचा दूंगा। मैं [मिडिया] बोल रहा हूँ। मैं मतलब ...बिका हुआ। आज सफर के दौरान भी कुछ इसी तरह की चर्चा मेरे कान सेंक रही थी। मीडिया के फैलते कारोबार और बिक्री को लेकर ही दो भले टाइप के मानुस आपस में राग अलाप रहे थे। एक सज्जन बोले अरे मीडिया बिका है फिर भी मंत्री-संत्री से ज्यादा पावरफुल है। दूसरे भाई साहब कुछ अपशब्दों के साथ मेरा [मिडिया]  हौसला आफजाई कर रहे थे। दोनों महापुरुषों की वाणी मुझे इस वक्त किसी तीर से कम नही चुभ रही थी मगर मैं [मिडिया] मैं हूँ नही बता पा रहा था। मैं मौके पर चौका मारने की फिराक में काफी देर तक किसी निरक्षर व्यक्ति की भांति कुछ देर उसका तो कुछ देर उसका। मतलब दोनों का मुँह ताक रहा था। बातचीत के सिलसिले में मालूम हुआ एक बंगाली बाबू है दूसरे मारवाड़ी। बात-बात में ये भी पता चल गया मारवाड़ी सज्जन रायपुर के रहने वाले है। उनका पता स्थाई/अस्थाई जो भी हो मगर पानी पी-पीकर मीडिया की बखिया उधेड़ते रहे। मारवाड़ी भाई को मलाल है शौचालय से लेकर शयन कक्ष तक एक गुजराती की महिमा मंडित आरती का शोर टीवी पर सुनाई देता है। आखिर नमो बाबा की आरती मीडिया दर्शन पर कब ख़त्म होगी ? मारवाड़ी भाई की परेशानी लाजिमी है मगर लक्ष्य २०२४ तक का है।  
    मुझे [मिडिया] अभी कई सालों तक अपमानित होना है। बुरे दौर की कालिख तो मेरे [मीडिया कर्मी] ही चेहरे पर मली जायेगी। उन घरानों का कौन नाम लेता है जिनके हाथों की मैं [मिडिया] कठपुतली हूँ ? उनसे तो कोई सवाल नही पूछता कितने में बिके हो भाई खम्भानी,धम्भानी... ? अरे मैं [मिडिया] जिनके इशारे पर बाजार में बन्दर के माफिक नाच रहा हूँ,जिनके एक इशारे पर मेरे [मिडिया] आत्म स्वाभिमान की बलि चढ़ जाती है,जिनकी चाकरी में मेरे [मिडिया] वस्त्र उतार दिए जाते है ऐसे दौर में भी मैं [मिडिया] कइयों का पेट भर रहा हूँ। सोचता हूँ आज नही तो कल हालात बदलेंगें मगर इस हालात के लिए जिम्मेदार भी तो मेरे ही साथी है। कुछ कल तक कलमकार थे अब मालिक के लबादे में कलमकारी भूलकर मेरे जैसे जरुरत मंदों को रोजगार दे देते है।  मैंने काफी देर तक उस बाबू बंगाली और मारवाड़ी महाशय को सूना। भले-बुरे के बीच कई कड़वी हकीकत जो मालिकान के कानों तक नही पहुंचती वो सब सुनने के बाद मैंने केवल एक ही सवाल किया... भईया अगर आप किसी समाचार चैनल के मालिक होते तो क्या ये सब नही दिखाते ? जवाब नही था भाई बकबक दास के पास। मैंने कहा सर बाज़ार की डिमांड पर खबरे परोसते है हम। देखना ना देखना आपकी मर्ज़ी। क्यूंकि कोठे पर जाने वाला हर शख्स मुजरे का शौक़ीन हो जरूरी नही।    

Wednesday, September 17, 2014

ऊफ़्फ़ ये 'चापलूस' !

कुछ लोगों की फितरत ही होती है दिल खोल के चापलूसी करने की। वैसे आज की जरूरत भी है। बिना चाटुकारिता के सामाजिक प्रतिष्ठा खो जाने का डर जो बना रहता है।  चापलूसी पसंद इंसानों को इस ख़ास किस्म के चटोरों से विशेष लगाव और हमदर्दी होती है। वो चाहते है चाटने वाले हमेशा उनके दायें-बाएं बने रहें। मैं तो यात्री हूँ,कभी फलां एक्सप्रेस का तो कभी मेमू लोकल का। रोज देखता हूँ उन चाटुकारों को। सुबह से लेकर घर लौटने तक हर चाटने वाले का किसी ना किसी से स्वार्थ जुड़ा हुआ है। कोई किसी तो कोई किसी और उम्मीद में बेहतर से बेहतर प्रदर्शन को लालायित नज़र आता है। रोज के सफर में मिलने वाले ख़ास किस्म के ये इंसान अक्सर सामने वाले की पसंद-नापसंद का विशेष ख्याल रखते है। 
   मसलन मुन्नी बुआ को सर्दी है तो उनके लिए चाय,काफी। शीला की पेशानी पर पसीना देख पेप्सी या फिर माजा,मिरिंडा। मुह बोली दीदी,भाभी का भी ख्याल रखना है। किसी को किसी तरह की समस्या हुई मतलब चापलूस की कर्मठता पर सीधा सवाल ? ये रोज की बात है। बिलासपुर से कोरबा फिर कोरबा से वापस बिलासपुर। अलग-अलग संस्थान के कई ताहुतदार दिखाई पड़ते है। कुछ ऐसे भी है जो सिर्फ जगह छेंकने का काम ईमानदारी से करते है। कई बार ऐसा भी होता है जगह का जुगाड़ करने वाला इसकी-उसकी जंघा में टिकाने को मोहताज दिखाई पड़ता है।
                        कई मुसाफिर है मगर चापलूसों का कुनबा बड़ा है। मैं रोज देखता हूँ,सुनता हूँ और सोचता हूँ अगर पिछलग्गू,चापलूस,चाटुकार ना होते तो क्या होता ?

Tuesday, September 16, 2014

कुछ देर कालू तो..


                                        
                             ये हकीकत उस कुर्सी की है जिसे मै रोज अपनी कुर्सी पर बैठे-बैठे देखता हूँ । सोचता हूँ उस कुर्सी की बदनसीबी पर जिस पर कालू,दुकालू कोई भी चढ़ जाता है । जिसे दुत्कार कर कुर्सी दी गई वो खुद को कुर्सी में चढ़ने के बाद मालिक होने का भ्रम पाल लेता है । कईयों ने कई बार भ्रम तोडा भी मगर तुच्छ नौकर ने ना अपने कद-काठी को देखा ना पिटे हुए बडबोले मुह को । कुर्सी पर चढ़ते ही नीचे की गर्मी चेहरे पर । रोज अपमानित होती है कुर्सी पर बोलती नही । बैठने वाले को पता है आज यहाँ तो कल मालिक के बंगले पर नौकरी बजानी है । तो जब भी कुर्सी पर टिकाने का मौक़ा मिलता है बोल बचन शुरू । टाईम-टाईम पर इस कुर्सी के जायज-नाजायज कई दावेदार है । उधार की कुर्सी पर बैठने वाला भी काफी फैलकर बैठता है । यक़ीनन उसे मालूम है वो कुर्सी उसकी नही है इसीलिए खाली दिखते ही कुर्सी पर टिका लेता है । जितनी देर नीचे कुर्सी की गर्माहट होती है वो भी गुर्राता है । मालिक,मैनेजर और ना जाने क्या क्या ? स्वयंभू है । अपनी हकीकत जानता है शायद इसीलिए साहब बनने का ढोल पीटता है ।
                                    वो कुर्सी बेबस है,लाचार है । ऐसे लोगों का बोझ ढों रही है जिन्हें ज़मीन में बैठने का सलीका भी नही आता । मै जब भी उस कुर्सी को देखता हूँ ये ही सोचता हूँ वो कैसे खामोशी से चोर,उचक्के पाकिटमार और नाकाबिलों का बोझ ढो रही है । उस कुर्सी की प्रतिष्ठा के साथ रोज होते बलात्कार का मै प्रत्यक्ष गवाह हूँ । मै रोज देखता हूँ उस कुर्सी को जिस पर कुछ देर कालू तो कुछ देर दुकालू बैठता है ।