Wednesday, September 17, 2014

ऊफ़्फ़ ये 'चापलूस' !

कुछ लोगों की फितरत ही होती है दिल खोल के चापलूसी करने की। वैसे आज की जरूरत भी है। बिना चाटुकारिता के सामाजिक प्रतिष्ठा खो जाने का डर जो बना रहता है।  चापलूसी पसंद इंसानों को इस ख़ास किस्म के चटोरों से विशेष लगाव और हमदर्दी होती है। वो चाहते है चाटने वाले हमेशा उनके दायें-बाएं बने रहें। मैं तो यात्री हूँ,कभी फलां एक्सप्रेस का तो कभी मेमू लोकल का। रोज देखता हूँ उन चाटुकारों को। सुबह से लेकर घर लौटने तक हर चाटने वाले का किसी ना किसी से स्वार्थ जुड़ा हुआ है। कोई किसी तो कोई किसी और उम्मीद में बेहतर से बेहतर प्रदर्शन को लालायित नज़र आता है। रोज के सफर में मिलने वाले ख़ास किस्म के ये इंसान अक्सर सामने वाले की पसंद-नापसंद का विशेष ख्याल रखते है। 
   मसलन मुन्नी बुआ को सर्दी है तो उनके लिए चाय,काफी। शीला की पेशानी पर पसीना देख पेप्सी या फिर माजा,मिरिंडा। मुह बोली दीदी,भाभी का भी ख्याल रखना है। किसी को किसी तरह की समस्या हुई मतलब चापलूस की कर्मठता पर सीधा सवाल ? ये रोज की बात है। बिलासपुर से कोरबा फिर कोरबा से वापस बिलासपुर। अलग-अलग संस्थान के कई ताहुतदार दिखाई पड़ते है। कुछ ऐसे भी है जो सिर्फ जगह छेंकने का काम ईमानदारी से करते है। कई बार ऐसा भी होता है जगह का जुगाड़ करने वाला इसकी-उसकी जंघा में टिकाने को मोहताज दिखाई पड़ता है।
                        कई मुसाफिर है मगर चापलूसों का कुनबा बड़ा है। मैं रोज देखता हूँ,सुनता हूँ और सोचता हूँ अगर पिछलग्गू,चापलूस,चाटुकार ना होते तो क्या होता ?

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