Tuesday, September 16, 2014

कुछ देर कालू तो..


                                        
                             ये हकीकत उस कुर्सी की है जिसे मै रोज अपनी कुर्सी पर बैठे-बैठे देखता हूँ । सोचता हूँ उस कुर्सी की बदनसीबी पर जिस पर कालू,दुकालू कोई भी चढ़ जाता है । जिसे दुत्कार कर कुर्सी दी गई वो खुद को कुर्सी में चढ़ने के बाद मालिक होने का भ्रम पाल लेता है । कईयों ने कई बार भ्रम तोडा भी मगर तुच्छ नौकर ने ना अपने कद-काठी को देखा ना पिटे हुए बडबोले मुह को । कुर्सी पर चढ़ते ही नीचे की गर्मी चेहरे पर । रोज अपमानित होती है कुर्सी पर बोलती नही । बैठने वाले को पता है आज यहाँ तो कल मालिक के बंगले पर नौकरी बजानी है । तो जब भी कुर्सी पर टिकाने का मौक़ा मिलता है बोल बचन शुरू । टाईम-टाईम पर इस कुर्सी के जायज-नाजायज कई दावेदार है । उधार की कुर्सी पर बैठने वाला भी काफी फैलकर बैठता है । यक़ीनन उसे मालूम है वो कुर्सी उसकी नही है इसीलिए खाली दिखते ही कुर्सी पर टिका लेता है । जितनी देर नीचे कुर्सी की गर्माहट होती है वो भी गुर्राता है । मालिक,मैनेजर और ना जाने क्या क्या ? स्वयंभू है । अपनी हकीकत जानता है शायद इसीलिए साहब बनने का ढोल पीटता है ।
                                    वो कुर्सी बेबस है,लाचार है । ऐसे लोगों का बोझ ढों रही है जिन्हें ज़मीन में बैठने का सलीका भी नही आता । मै जब भी उस कुर्सी को देखता हूँ ये ही सोचता हूँ वो कैसे खामोशी से चोर,उचक्के पाकिटमार और नाकाबिलों का बोझ ढो रही है । उस कुर्सी की प्रतिष्ठा के साथ रोज होते बलात्कार का मै प्रत्यक्ष गवाह हूँ । मै रोज देखता हूँ उस कुर्सी को जिस पर कुछ देर कालू तो कुछ देर दुकालू बैठता है ।

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